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Smita Patil: तवायफों के दर्द को महसूस करने वाली साहसी अभिनेत्री; देह व्यापार, तवायफों-वेश्याओं का दर्द…


Smita Patil: तवायफों के दर्द को महसूस करने वाली साहसी अभिनेत्री; देह व्यापार, तवायफों-वेश्याओं का दर्द…

स्मिता पाटिल (Smita Patil) ने अपनी फिल्मों से हर सिनेमाप्रेमी के दिलों में एक अलग छाप छोड़ी है। उन्होंने 1974 में फिल्म ‘राजा शिव छत्रपति’ से अपनी करियर की शुरुआत की थी। इसके बाद उन्होंने ‘सामना’ और ‘मंथन’ जैसी फिल्मों में बेहतरीन अदाकारी का प्रदर्शन किया। थ्रो बैक थर्सडे के इस विशेष लेख में हम स्मिता पाटिल से जुड़ा एक ऐसा किस्सा बता रहे हैं, जहां उन्होंने तवायफों के किरदारों को पर्दे पर ग्लैमराइज तरीके से दिखाने पर नाराजगी जताई थी।

“देह व्यापार को लेकर बिमल रॉय से लेकर गुरुदत्त तक, लोगों ने काफी अच्छी फिल्में बनाई हैं, लेकिन आज के समय में जो तवायफों-वेश्याओं का दर्द है कि वह इस प्रोफेशन में क्यों हैं, उस दर्द को भूलकर सिर्फ उसके बदन को एक्सपोज करने का जो तरीका बन रहा है, वो बहुत ही गलत है।”

एक साहसी अभिनेत्री का उदय

स्मिता पाटिल (Smita Patil) का जन्म 17 अक्तूबर 1955 को हुआ था। उन्होंने अपने पूरे करियर में 80 से ज्यादा फिल्मों में काम किया। उनकी अदाकारी और फिल्मों ने हिंदी सिनेमा को कई यादगार पल दिए हैं। स्मिता पाटिल ने 1975 में श्याम बेनेगल की फिल्म ‘चरणदास चोर’ से अपने करियर की शुरुआत की थी। उन्होंने पैरेलल और मेनस्ट्रीम सिनेमा दोनों में ही काम किया और अपने दौर की साहसिक अभिनेत्रियों में गिनी जाती थीं।

तवायफों के प्रति सहानुभूति

स्मिता पाटिल ने सिनेमा में तवायफों के किरदारों के प्रति गहरी सहानुभूति दिखाई। उन्होंने इन किरदारों की तड़क-भड़क के पीछे छिपे दर्द को महसूस किया और उसे समझा। स्मिता ने इन किरदारों को गढ़ने और पेश करने के तरीकों की कड़ी आलोचना की। उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि तवायफों के किरदारों को ग्लैमराइज करने के बजाय उनके असली दर्द और संघर्ष को दिखाया जाना चाहिए।

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तवायफों के दर्द को नहीं दिखाते मेकर्स

बीते महीने जब संजय लीला भंसाली की वेब सीरीज ‘हीरामंडी’ रिलीज हुई थी, तो निर्देशक विवेक अग्निहोत्री और एक पाकिस्तानी यूजर ने इस बात पर आपत्ति जताई थी कि तवायफों की जिंदगी के असली दर्द को स्क्रीन पर क्यों नहीं उतारा जाता है। उन्होंने सवाल उठाया कि क्यों उन्हें ग्लैमराइज करके दिखाया जाता है? इस संदर्भ में स्मिता पाटिल की बातों का विशेष महत्व है।

स्मिता पाटिल ने कहा था, “देह व्यापार को लेकर बिमल रॉय से लेकर गुरुदत्त तक, लोगों ने काफी अच्छी फिल्में बनाई हैं, लेकिन आज के समय में जो तवायफों-वेश्याओं का दर्द है कि वह इस प्रोफेशन में क्यों हैं, उस दर्द को भूलकर सिर्फ उनके बदन को एक्सपोज करने का जो तरीका बन रहा है, वो बहुत ही गलत है।”

महिलाओं की छवि को लेकर नाराजगी

स्मिता पाटिल ने सिनेमा में महिलाओं की छवि को लेकर भी नाराजगी जताई थी। उन्होंने कहा था, “बहुत सारी औरतों को या तो पतिव्रता दिखा देते थे या फिर उन्हें सती और बेवकूफ-कमजोर दिखाया जाता था। या फिर उन्हें फिल्मों में वैम्प बना दिया जाता था, जो नेगेटिव रोल करती हैं। ये सब चीजें मुझे निजी तौर पर कभी अच्छी नहीं लगीं।”

एक साहसी आवाज Smita Patil

स्मिता पाटिल अपने दौर की एक साहसी अभिनेत्री थीं, जिन्होंने मसाला फिल्मों में औरतों की सिनेमाई छवि के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। उन्होंने तवायफों के किरदारों को पर्दे पर ग्लैमराइज तरीके से दिखाने के विरोध में खुलकर बातें कीं। उन्होंने कहा कि तवायफों के किरदारों में दर्द की एक गाढ़ी लकीर होती है, जिसे मेकर्स नजरअंदाज कर देते हैं।

स्मिता पाटिल (Smita Patil) की विरासत

स्मिता पाटिल की फिल्मों ने हिंदी सिनेमा को नई दिशा दी। उनकी अदाकारी और उनकी विचारधारा ने सिनेमा में महिलाओं की छवि को लेकर एक नई बहस शुरू की। उन्होंने तवायफों के दर्द और संघर्ष को समझा और इसे अपने अभिनय में उतारा। स्मिता पाटिल की विरासत आज भी जीवित है और उनकी फिल्मों के माध्यम से उनकी आवाज आज भी गूंजती है।

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तवायफों के किरदारों का सही चित्रण

स्मिता पाटिल का मानना था कि तवायफों के किरदारों का सही चित्रण होना चाहिए। उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि तवायफों के किरदारों को ग्लैमराइज करने के बजाय उनके असली दर्द और संघर्ष को दिखाया जाना चाहिए। उनका कहना था कि तवायफों के किरदारों में गहराई होती है और इसे समझने की जरूरत है।

एक अभिनेत्री Smita Patil का संघर्ष

स्मिता पाटिल ने अपने करियर में कई चुनौतियों का सामना किया। उन्होंने अपने दौर की साहसिक अभिनेत्रियों में गिनी जाती थीं, जिन्होंने मसाला फिल्मों में औरतों की सिनेमाई छवि के लिए अपनी आवाज बुलंद की।

सिनेमा में तवायफ़ों का प्रतिनिधित्व

भारतीय सिनेमा में तवायफ़ों का प्रतिनिधित्व करने वाली कई फिल्में बनी हैं, जिनमें ‘प्यारी बेहनों’, ‘पकिज़ा’ और ‘मृगया’ शामिल हैं। इन फिल्मों में तवायफ़ों की ज़िंदगी को ग्लैमराइज़ किया गया है, जिससे उनकी समस्याएँ और असलीता छुपी रही है।

समाज की दृष्टि का परिप्रेक्ष्य

तवायफ़ों की दुनिया को सिनेमा में उतारते समय, अक्सर उन्हें समाज की दृष्टि से देखा जाता है। उन्हें नकली और असली दोनों रूपों में दर्शाया जाता है, लेकिन उनके वास्तविक जीवन के बारे में कम जानकारी होती है।

एक्सप्लोरिंग सिनेमाटिक डिप्थ

कुछ फिल्मकारों ने इस समस्या पर ध्यान दिया है और तवायफ़ों के जीवन को असली दृष्टिकोण से दर्शाने का प्रयास किया है। इसका उदाहरण समीक्षा राय की फिल्म ‘सटी’ और माधुर भंडारकर की ‘चांडनी बार’ है। इन फिल्मों में तवायफ़ों के जीवन की सच्चाई को समझाया गया है, जो उनके दर्द और संघर्ष को दर्शाता है।

नई दिशाएँ और उम्मीदें

आजकल कुछ फिल्मकार और निर्देशक उन आवाज़ों को सुनने की कोशिश कर रहे हैं, जो समाज के तवायफ़ों और वेश्याओं के प्रति गहरी संवेदना रखते हैं। इसका उदाहरण भारतीय सिनेमा के नवीनतम उदाहरण ‘हीरामंडी’ है, जिसने तवायफ़ों के जीवन को एक नए प्रकार से प्रस्तुत किया है। इसमें उनकी असलीता और दर्द को समझाने की कोशिश की गई है, जो उन्हें सिनेमाई दृष्टिकोण से अलग करती है।


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