Gaura Devi: गौरा देवी का नाम भारतीय पर्यावरण आंदोलन में एक अहम स्थान
गौरा देवी: चिपको आंदोलन की जननी
Gaura Devi: गौरा देवी का नाम भारतीय पर्यावरण आंदोलन में एक अहम स्थान रखता है। उनकी जि़न्दगी और संघर्ष ने पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में एक नया अध्याय लिखा। उनकी प्रेरणादायक यात्रा न केवल हिमालय के जंगलों और उनके जीवन के बीच के रिश्ते को दर्शाती है, बल्कि यह भी बताती है कि कैसे एक महिला, अपने समुदाय के लिए अपनी आवाज़ उठाकर बड़े बदलाव ला सकती है। उत्तराखंड के चमोली जिले के लाता गांव में 1925 में जन्मी गौरा देवी का जीवन संघर्ष, साहस और पर्यावरण प्रेम का प्रतीक बन गया है। Gaura Devi
गौरा देवी का संघर्ष केवल अपने परिवार और गांव के लिए नहीं था, बल्कि यह एक बड़े सामाजिक और पर्यावरणीय मुद्दे से जुड़ा हुआ था, जिसे उन्होंने अपने जीवन के काम में बदल दिया। चिपको आंदोलन, जो आज भी पर्यावरणीय आंदोलनों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, उनके साहस और नेतृत्व का परिणाम है। इस आंदोलन ने न केवल जंगलों की कटाई के खिलाफ आवाज उठाई, बल्कि यह भी प्रदर्शित किया कि समाज के सबसे कमजोर वर्ग, विशेषकर महिलाओं, का प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है।
गौरा देवी का प्रारंभिक जीवन और संघर्ष Gaura Devi
गौरा देवी का प्रारंभिक जीवन कठिनाइयों से भरा था। एक छोटे से गांव में जन्मी और बड़े हुए परिवार में महिला के रूप में उनका जीवन पहले से ही चुनौतियों से भरा था। उनकी शादी महज़ 12 साल की उम्र में हुई, और बहुत कम समय में वे विधवा हो गईं। पति की असमय मृत्यु ने उनकी ज़िन्दगी को पूरी तरह से बदल दिया। इसके बाद, गौरा देवी को अपने बच्चे को अकेले पालने की जिम्मेदारी उठानी पड़ी, जो उस समय की कठिन परिस्थितियों में एक बड़ी चुनौती थी।
इन कठिन परिस्थितियों ने गौरा देवी को और भी मजबूत बनाया। उनका जीवन परिवार और समाज के दायित्वों से बंधा था, लेकिन एक महिला के रूप में वह सिर्फ अपनी व्यक्तिगत समस्याओं तक सीमित नहीं थीं। उन्हें यह महसूस हुआ कि यदि वे सिर्फ अपने परिवार तक ही सीमित रहीं, तो समाज में और उनके जैसे हजारों परिवारों में समान समस्याएं बनी रहेंगी। उनका यह विचार धीरे-धीरे गांव के विकास और पर्यावरण संरक्षण की ओर मुड़ा, जहां वह सामुदायिक संघर्षों में जुट गईं।
चिपको आंदोलन का आरंभ Gaura Devi
गौरा देवी की सक्रियता का वास्तविक आरंभ 1972 में हुआ, जब उन्होंने रैणी गांव में महिलाओं के संगठन ‘रैणी महिला मंगल दल’ की स्थापना की। यह दल महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने, सामूहिक रूप से एकजुट होने और अपने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से बना था। उस समय उत्तराखंड में वनों की अंधाधुंध कटाई एक गंभीर समस्या बन चुकी थी। स्थानीय लोग अपने जीवन के लिए जंगलों पर निर्भर थे, और वृक्षों की अंधाधुंध कटाई उनके अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी बन चुकी थी।
गौरा देवी को यह समझ में आया कि यदि इस स्थिति को बदला नहीं गया, तो उनका समुदाय जीवित नहीं रह सकेगा। यही कारण था कि उन्होंने अपने संगठन के माध्यम से महिलाओं को संगठित किया। चिपको आंदोलन का उद्देश्य था वनों की अंधाधुंध कटाई को रोकना और जंगलों की सुरक्षा करना।
चिपको आंदोलन का मोड़ Gaura Devi
चिपको आंदोलन ने 26 मार्च 1974 को निर्णायक मोड़ लिया। उस दिन, गौरा देवी और रैणी गांव की महिलाओं ने एक बड़ा कदम उठाया। जब एक लकड़ी काटने वाला ठेकेदार और उनके मजदूर गांव के जंगल में पेड़ काटने आए, तो गौरा देवी और अन्य महिलाओं ने अपनी जान की परवाह किए बिना इन पेड़ों को अपनी बाहों में जकड़ लिया। इस साहसिक कदम ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया और चिपको आंदोलन को व्यापक पहचान दिलाई। इस आंदोलन के दौरान, गौरा देवी ने स्थानीय महिलाओं को पेड़ों को गले लगाकर उनकी रक्षा करने की प्रेरणा दी, और इस तरह ‘चिपको’ शब्द को पर्यावरण आंदोलन के प्रतीक के रूप में स्थापित किया गया।
गौरा देवी का यह कदम केवल पेड़ों को बचाने का नहीं था, बल्कि यह उस समय के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक ढांचे के खिलाफ एक क्रांतिकारी कदम था। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि महिलाएं अपने समुदाय और पर्यावरण की रक्षा करने के लिए महत्वपूर्ण ताकत हो सकती हैं। Gaura Devi
गौरा देवी की विचारधारा और दृष्टिकोण
गौरा देवी के जीवन और कार्यों के पीछे जो दर्शन था, वह उनकी प्रकृति से गहरी जुड़ाव से उत्पन्न हुआ था। उनका मानना था कि “जंगल हमारे भगवान हैं।” उनका विचार था कि गांवों की जीविका और समुदाय की स्थिरता जंगलों पर निर्भर है। महिलाएं घर के कार्यों में, परिवार के पालन-पोषण में और खेतों में काम करने के अलावा जंगलों से लकड़ी, घास और अन्य संसाधनों की भी जुटाई करती थीं। उनके लिए जंगल सिर्फ एक प्राकृतिक संसाधन नहीं, बल्कि जीवन का एक अहम हिस्सा था।
गौरा देवी का यह दृष्टिकोण पर्यावरणीय स्थिरता और समाज के लिए उनकी प्रतिबद्धता को भी दर्शाता था। उन्होंने अपनी जिद और संघर्ष से यह साबित कर दिया कि एक छोटे से समुदाय की महिलाएं भी बड़े पर्यावरणीय आंदोलनों को प्रभावित करने की ताकत रखती हैं।
चिपको आंदोलन का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव
चिपको आंदोलन ने न केवल भारत में, बल्कि दुनियाभर में पर्यावरणीय आंदोलनों को एक नई दिशा दी। गौरा देवी और उनके साथियों के साहसिक कदमों ने यह दिखाया कि पर्यावरणीय संकट से निपटने के लिए स्थानीय समुदायों को शामिल करना अत्यंत आवश्यक है। इस आंदोलन ने यह भी स्पष्ट किया कि पर्यावरण संरक्षण को सिर्फ एक शहरी या अभिजात वर्ग के मुद्दे के रूप में नहीं देखा जा सकता, बल्कि यह ग्रामीण क्षेत्रों और स्थानीय समुदायों के जीवन की सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ है।
चिपको आंदोलन ने उस समय के समाज के लिए यह संदेश दिया कि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन केवल आर्थिक लाभ के लिए नहीं किया जा सकता; इसके साथ-साथ इन संसाधनों के संरक्षण की भी उतनी ही आवश्यकता है।
गौरा देवी की विरासत
गौरा देवी का निधन 4 जुलाई 1991 को हुआ, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है। उनकी प्रेरणा और साहस ने न केवल उत्तराखंड में, बल्कि पूरे देश और दुनिया में महिलाओं को पर्यावरणीय मुद्दों पर सक्रिय रूप से काम करने के लिए प्रेरित किया।
चिपको आंदोलन ने भारतीय पर्यावरण आंदोलन को एक नई दिशा दी। यह आंदोलन आज भी महिलाओं और समाज के लिए एक प्रेरणा का स्रोत है। उनकी जद्दोजहद ने यह सिद्ध कर दिया कि जब समाज की सबसे कमज़ोर मानी जाने वाली महिलाएं अपने अधिकारों और पर्यावरण की रक्षा के लिए खड़ी होती हैं, तो वे सामूहिक शक्ति के रूप में एक महत्वपूर्ण बदलाव ला सकती हैं।
गौरा देवी (Gaura Devi) की यह भावना और उनका संघर्ष आज भी पर्यावरणीय न्याय, सामाजिक समानता और महिला सशक्तिकरण के आंदोलन के रूप में जीवित है। उनकी मेहनत और समर्पण को श्रद्धांजलि स्वरूप, उत्तराखंड के चमोली जिले के गोपेश्वर में गौरा देवी पार्क में उनकी मूर्तियां स्थापित की गई हैं, जो उनकी पर्यावरणीय जागरूकता और स्थानीय समुदायों के अधिकारों की याद दिलाती हैं। Gaura Devi
गौरा देवी का जीवन यह प्रमाण है कि पर्यावरणीय सक्रियता केवल एक उच्च वर्ग का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह समाज के प्रत्येक वर्ग, विशेष रूप से महिलाओं, के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है। उनकी विरासत आज भी लाखों लोगों के दिलों में जिन्दा है और भविष्य में भी पर्यावरण आंदोलनों में उनका योगदान प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।