Garhwal Queen Karnavati: गढ़वाल के इतिहास में रानी कर्णावती का नाम साहस, कुशल नेतृत्व, और समाज सुधार के प्रतीक के रूप में लिया जाता है। 17वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में, जब उनका पति राजा महिपत शाह युद्ध के दौरान शहीद हो गए, उस समय उनका बेटा पृथ्वीपत मात्र सात वर्ष का था। इस कठिन समय में, रानी कर्णावती ने गढ़वाल राज्य की बागडोर संभाली और इसे अपने कुशल नेतृत्व के साथ एक नई दिशा दी।
उस युग में, जब समाज पितृसत्तात्मक था और महिलाओं की भूमिका सीमित थी, रानी कर्णावती ने न केवल सत्ता संभाली बल्कि उसे सुदृढ़ किया। उन्होंने दिखा दिया कि महिलाओं में भी नेतृत्व की अद्वितीय क्षमता होती है। उनके कार्यकाल में गढ़वाल न केवल सुरक्षित रहा बल्कि उसकी समृद्धि भी बढ़ी। उनकी दूरदर्शिता और दृढ़ संकल्प ने राज्य को कई कठिनाइयों से उबारा और गढ़वाल को एक मजबूत राज्य के रूप में स्थापित किया।
सामाजिक कल्याण और बुनियादी ढांचे का विकास
रानी कर्णावती का शासन सामाजिक कल्याण और बुनियादी ढांचे के विकास के लिए जाना जाता है। उनका सबसे प्रमुख योगदान राजपुर-देहरा नहर का निर्माण था, जिसे इतिहासकार डॉ. अजय रावत ने अपनी पुस्तक गढ़वाल हिमालय: ऐतिहासिक संभावना में उल्लेख किया है। 17वीं शताब्दी में निर्मित इस नहर ने गढ़वाल क्षेत्र में कृषि को प्रोत्साहन दिया। इस नहर के निर्माण का मुख्य उद्देश्य पीने के पानी की आपूर्ति करना था, लेकिन रानी ने इसे सिंचाई के लिए भी उपयोग में लाकर कृषि उत्पादकता में वृद्धि की। यह उनकी सोच की प्रगतिशीलता को दर्शाता है, जो पर्यावरण और समाज के प्रति उनकी गहरी समझ को प्रकट करता है।
लकड़ी के जलद्वार: जल प्रबंधन की अनूठी प्रणाली
मसूरी की पहाड़ियों से निकलने वाली रिस्पना नदी से राजपुर-देहरा नहर का उद्गम हुआ। इस नहर के माध्यम से देहरा शहर में पानी पहुंचाया गया। नहर का निर्माण जल प्रबंधन के क्षेत्र में एक मील का पत्थर साबित हुआ। इसमें हाथ से संचालित लकड़ी के जलद्वार लगाए गए थे, जो जल प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए उपयोग किए जाते थे। ये द्वार न केवल पानी की आपूर्ति को नियंत्रित करने में सहायक थे बल्कि जल संरक्षण की एक प्रभावशाली विधि भी थे। Garhwal Queen Karnavati:
नहर का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व
राजपुर-देहरा नहर का सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव भी महत्वपूर्ण था। इसका विस्तार कई गांवों तक किया गया जिससे क्षेत्र में कृषि का विकास हुआ। विजय भट्ट के अनुसार, धर्मपुर, अजबपुर कलां, और बंजारावाला जैसे गांवों में इस नहर का पानी फसलों के लिए जीवनदायिनी साबित हुआ। इस नहर की देखरेख और प्रबंधन की जिम्मेदारी गुरु राम राय मंदिर के महंतों को सौंपी गई थी। इस निर्णय ने देहरा में धार्मिक और सामाजिक प्राधिकरण को मजबूत किया, जिससे जल प्रबंधन और धार्मिक आस्था का अद्वितीय मेल स्थापित हुआ।
1817 में, महंत हर सेवक ने नहर पर अपना स्वामित्व दावा किया। यह विवाद औपनिवेशिक प्रशासन और स्थानीय धार्मिक प्राधिकरण के बीच संघर्ष का कारण बना। नगर आयुक्तों के बोर्ड ने इस दावे का विरोध किया, यह कहते हुए कि नहर रानी कर्णावती द्वारा बनवाई गई थी और महंत के दावे का कोई ठोस प्रमाण नहीं था। 1840 में ब्रिटिश इंजीनियर कॉटली को नियुक्त किया गया, जिन्होंने नहर के पुनर्निर्माण की योजना बनाई। इसका उद्देश्य नहर की सिंचाई क्षमता को और अधिक बढ़ाना था।
देहरादून: “नहरों का शहर”
देहरादून का शहर अपने ऐतिहासिक नहरों के लिए प्रसिद्ध रहा है। रानी कर्णावती की पहल से शुरू हुई नहर प्रणाली ने इस क्षेत्र को “नहरों का शहर” के रूप में प्रसिद्ध किया। इस सिंचाई प्रणाली ने कृषि और स्थानीय जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। ब्रिटिश इंजीनियर प्रोवी कॉटली ने रानी के प्रयासों को आगे बढ़ाते हुए नहर प्रणाली का विस्तार किया, जिससे देहरादून में कृषि और शहरी विकास को बढ़ावा मिला। Garhwal Queen Karnavati:
शहर के विकास में करनपुर की भूमिका
करनपुर, जो अब देहरादून का एक प्रमुख उप-नगर है, मूलतः कर्णावती के नाम पर बसाया गया था। यहाँ की शैक्षणिक गतिविधियाँ, विशेषकर डीएवी डीवीएस कॉलेज ने इसे एक शैक्षिक केंद्र में बदल दिया है। करनपुर के विकास में इस कॉलेज की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जिससे यह क्षेत्र आज छात्रों और युवाओं का गढ़ बन गया है।
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देहरादून की धरोहर को बचाने की चुनौती
आज के समय में देहरादून, जो कभी अपनी नहरों और हरियाली के लिए प्रसिद्ध था, तेजी से शहरीकरण की चपेट में है। आधुनिकता और वैश्वीकरण की इस दौड़ में, देहरादून की ऐतिहासिक धरोहर को संरक्षित करना एक बड़ी चुनौती बन गया है। रानी कर्णावती जैसे महान नेताओं की विरासत को संरक्षित करने के लिए अब ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।
रानी कर्णावती ने गढ़वाल और देहरादून की प्रगति और विकास में जो योगदान दिया, वह इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। उनके द्वारा बनाई गई नहरें और जल प्रबंधन की प्राचीन प्रणालियाँ आज भी प्रासंगिक हैं। उनका दूरदर्शी नेतृत्व, न केवल समाज के कल्याण के प्रति समर्पित था बल्कि एक महिला शासक के रूप में अपने समय से बहुत आगे का दृष्टिकोण दर्शाता था। उनकी स्मृति को जीवित रखने के लिए, देहरादून की ऐतिहासिक धरोहरों का संरक्षण और अध्ययन करना आवश्यक है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ उनके योगदान से प्रेरणा ले सकें।
साभार:
- इतिहासकार डॉ. अजय रावत (गढ़वाल हिमालय: ऐतिहासिक संभावना)
- देहरादून गजेटियर – वाल्टन
- उत्तराखण्ड जल संस्थान