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Divya Jyoti Jagrati Sansthan Dehradun शाश्वत भक्ति की सफलता का आधार समर्पण -विदुषी जी

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दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान देहरादून

‘‘शाश्वत भक्ति की सफलता का आधार है, पूर्ण गुरू का सामर्थ्य और शिष्य का समर्पण’ – साध्वी विदुषी भागीरथी भारती जी

देहरादून। ‘चिड़ियों से मैं बाज़ लड़ाऊँ, तब गोबिन्द सिंह नाम कहाऊँ।’

यह पक्तियां पूर्ण गुरू की सामर्थ्य को ही प्रतिबिम्बित किया करती हैं। दशम् पातशाही गुरू गोबिन्द सिंह जी महाराज का सामर्थ्य है कि उन्होंने निरीह चिड़ियों को बाज़ जैसे शक्तिशाली और विशाल बाज़ के साथ लड़वा दिया। लड़वा ही नहीं दिया अपितु उन्हें विजय भी प्राप्त करवा दी। इसी क्रम में खालसा पंत के सृजनहार गुरू जी ने-

‘सवा लाख से एक लड़ाऊँ, तब गोबिन्द सिंह नाम कहाऊँ।’

को भी सिद्ध करके दिखला दिया कि मेरा एक सिक्ख (शिष्य) सवा लाख आतताइयों से अकेला लड़कर फतह (विजय) हासिल कर सकता है। यह होती है पूर्ण गुरू की समर्थता और उनकी व्यापकता। भगवान भी जहां अपनी बनाई सृष्टि के नियमों में आबद्ध हैं वहीं पूर्ण गुरू सृष्टि के समस्त नियमों, समस्त कानूनों से ऊपर हुआ करते हैं।

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Divya Jyoti Jagrati Sansthan Dehradun शाश्वत भक्ति की सफलता का आधार समर्पण -विदुषी जी

सदगुरू अपने शरणागत शिष्य के कल्याण में रूकावट बनने वाली हर बाधा, हर विपदा को दूर करने के लिए नियमों और कानूनों का भी अतिक्रमण कर जाते हैं। सदगुरू के लिए सृष्टि में एैसा कुछ भी नहीं है जो कि असम्भव हो। शास्त्र भी एैसे परम गुरू की महिमा गाते हुए कहता है- ‘कर्ता करे न कर सके, गुरू करे सो होए, तीन लोक नवखण्ड में, गुरू से बड़ा न कोए’।

यह अनमोल सद्विचार आज ‘दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान’ की देहरादून शाखा, निरंजनपुर के आश्रम सभागार में ‘सदगुरू श्री आशुतोष महाराज जी’ की शिष्या तथा संस्थान की प्रचारिका साध्वी विदुषी भागीरथी भारती जी के द्वारा उपस्थित भक्त श्रद्धालुगणों के मध्य प्रस्तुत किए गए। अवसर था संस्थान द्वारा प्रत्येक रविवार को आयोजित होने वाले साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का।

सध्वी जी ने अपने विचार प्रवाह को आगे बढ़ाते हुए बताया कि पूर्ण गुरू का सामर्थ्य और शिष्य का पूर्ण समर्पण शाश्वत भक्ति की विजय का सशक्त आधार है। संसार में एकमात्र गुरू ही हैं जिन पर शिष्य के समस्त क्रियाकलापों का गहरा असर हुआ करता है। संसार के तमाम रिश्ते नातों को, हमदर्दों और परिवारीजनों को कोई भी फर्क इससे नहीं पड़ता कि उनसे संबंधित व्यक्ति क्या करता है और क्या नहीं करता है। जबकि गुरू जो कि शिष्य की अंर्तचेतना के साथ जुड़े होते हैं और सर्व अंर्तयामी होने के नाते शिष्य के भीतर जो भी चल रहा होता है, उस पर उनकी अंर्तदृष्टि सदैव लगी रहती है।

गुरू पर शिष्य के अंर्तमन में चल रही बातों से इसलिए फर्क पड़ता हैं क्यों कि गुरू शिष्य पर निरंतर काम करते हैं, वे शिष्य की पात्रता को विकसित करने के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर देते हैं, वे शिष्य रूपी अनगढ़ पाषाण को सुन्दर मूरत में गढ़ने के लिए अथक परिश्रम किया करते हैं। साध्वी जी ने कहा कि शिष्य के लिए गुरू रूपी परम श्रेष्ठ अद्वितीय सौगात पाने हेतु तीन बातें मुख्यतः आवश्यक होनी चाहिए।

पहली बात, कीमत जानिए! दूसरी बात, कीमत समझिए! तीसरी और विशेष बात, कीमत चुकाइए! कीमत चुकाने के लिए अपना सर्वस्व एैसे गुरू पर अर्पित कर देने की है जिसने तुम्हंे ईश्वर दिखा दिया, ईश्वर से मिला दिया, ईश्वर को प्रदान कर दिया। छत्रपति शिवाजी महाराज के स्वामीभक्त श्वान की अद्भुत स्वामी भक्ति के साथ-साथ उन्होंने समर्थ गुरू रामदास जी का वृतांत भी उद्धृत करते हुए बताया कि किस प्रकार अपनी शिष्या को ‘सौभाग्यवती भवः’ का आर्शीवाद देने के उपरान्त उनके मृत पति के लिए प्रकृति ने अपना विधान और मृत्यु ने अपना नियम तथा अग्नि ने अपना स्वभाव ही बदल दिया।

भजनों की अविरल मधुर प्रस्तुति के द्वारा मंचासीन संगीतज्ञों ने भक्तजनों को भावविह्ल कर दिया। 1. भगवान सदा संग है अपने, एक वो ही सच्चा साथी है, अंग-संग रहते एैसे जैसे श्वांसे आती-जाती हैं… 2. हर घड़ी हर पल करूं सुमिरन तेरा, एैसा बना दो प्रभु जीवन मेरा….. 3. चल चलना है चल, तेरी एक ही मंज़िल, तेरा एक ही माँझी, तेरा एक ही मौला, तेरा एक ही मालिक, तेरा एक मसीहा, चल चलना है चल….. 4. तुझ में हूं मैं, मुझमें है तू प्रेम का नाता जिससे, मेरा आशु बाबा…… 5. तेरे उपकारों का गुरूवर रोम-रोम आभारी है….. इत्यादि भजनों के द्वारा खूब समां बांधा गया।

भजनों की सम्पूर्ण व्याख्या करते हुए मंच का संचालन साध्वी विदुषी भक्ति प्रिया भारती जी के द्वारा किया गया। उन्होंने कहा कि ज्ञान पथ पर निरंतर बढ़ने में, नदी की स्वच्छ जल धारा की तरह गीत- संगीत और भजन भक्त को लाभ दिया करते हैं। मानव मन संगीत का भी रसिया है। मनुष्य इस मन को जैसा पोषण देता है परिणाम भी उसी के अनुसार सामने आता है।

आज समाज़ में देखें तो बेतुके फूहड़ गानों पर लोग इस मन को नचाते हैं, अश्लील स्वरों की धुन पर इस मन को विकारों की खाई में धकेलते हैं। महापुरूषों ने भजन संगीत का प्रचलन इसीलिए किया ताकि इस संगीत के रसिया मन को सात्विक पोषण देते हुए भक्ति और श्रद्धा की आध्यात्मिक धुन पर नचाया जाए। यही मन जब निरंतर ईश्वरीय सदविचारों के बीच भजन-संर्कीतन तथा सत्संग-प्रवचनों का आदि होता चला जाता है तब! फिर इसका कही अन्य जगह भटकना सम्भव नहीं रह जाता है।

ईश्वर जीव के इतना निकट है कि उसकी आती-जाती श्वांसें भी उससे दूर हैं। आती-जाती श्वांसों में चल रहे प्रभु के उस आदि नाम को जब पूर्ण सद्गुरू अपने सनातन पावन ‘ब्रह्मज्ञान’ के द्वारा मनुष्य के भीतर प्रकट कर देते हैं तब! पल-प्रतिपल मनुष्य की शाश्वत् भक्ति का शुभारम्भ हो जाता है। नरेन्द्र से स्वामी विवेकानन्द का सफर तभी समपन्न हो सका जब उनके सर पर स्वामी श्री रामकृष्ण परमहंस जी का वरदहस्त आया। भक्ति मार्ग का केवल एक ही अनमोल सूत्र है- चरैवेति-चरैवेति। अर्थात निरंतर, सतत चलते रहो। प्रसाद का वितरण कर साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।

भवदीय- दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान, देहरादून


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