Nirankari Sant Samagam: असीम की ओर विस्तार का संदेश: 77वें निरंकारी संत समागम का सफल समापन
कोटद्वार/हरियाणा: निरंकारी संत समागम एक ऐसा दिव्य अवसर है, जो न केवल जीवन की दिशा को बदलने का कार्य करता है, बल्कि समाज में भक्ति, प्रेम, और एकता का संदेश भी फैलाता है। हर वर्ष आयोजित होने वाला निरंकारी संत समागम (Nirankari Sant Samagam) इस बार अपने 77वें संस्करण के साथ कोटद्वार में संपन्न हुआ। इस समागम ने यह सिद्ध कर दिया कि सच्ची भक्ति और परमात्मा के ज्ञान से जीवन में असीम शांति, सुख, और प्रेम का विस्तार संभव है। संत समागम के अंतिम दिन, निरंकारी सतगुरु माता सुदीक्षा जी महाराज ने अपने अमृतमयी प्रवचनों में परमात्मा के असीम स्वभाव और मानव जीवन में इसके प्रभाव पर गहन विचार व्यक्त किए। उनके प्रवचन ने उपस्थित श्रद्धालुओं को आत्म-निर्भरता, समाज सेवा, और अद्भुत जीवन जीने के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया।
निरंकारी संत समागम की दिव्यता और उद्देश्य
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी निरंकारी संत समागम का आयोजन भव्य और दिव्य तरीके से किया गया। तीन दिन तक चले इस समागम में देश-विदेश से हजारों श्रद्धालु एकत्र हुए। यह समागम केवल एक धार्मिक सभा नहीं था, बल्कि यह समाज में शांति, एकता, और भाईचारे को बढ़ावा देने का एक शानदार उदाहरण था। इस समागम का प्रमुख उद्देश्य था—ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति से मानव जीवन को एक नई दिशा देना और परमात्मा के साथ जुड़कर जीवन के प्रत्येक पहलू में सकारात्मक विस्तार लाना।
समागम के तीसरे दिन का विशेष आकर्षण था, बहुभाषी कवि दरबार, जिसमें विभिन्न देशों के कवियों ने अपने-अपने भाषाओं में प्रेरणादायक रचनाओं का सृजन किया। 19 देशों से आए कवियों ने हिंदी, पंजाबी, मुल्तानी, हरियाणवी, और अंग्रेजी में अपनी कविता से श्रद्धालुओं को भावविभोर कर दिया। इस कवि दरबार ने यह सिद्ध कर दिया कि चाहे भाषा कोई भी हो, भक्ति और प्रेम की भावना सभी दिलों में समान रूप से पाई जाती है। साथ ही, बाल और महिला कवि दरबार ने भी अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में समानता, शांति, और प्यार का संदेश दिया। Nirankari Sant Samagam
लंगर सेवा: एकता और भाईचारे का प्रतीक
निरंकारी संत समागम का एक और महत्वपूर्ण पहलू था, लंगर सेवा। समागम में हजारों श्रद्धालुओं के लिए विशेष लंगर का आयोजन किया गया था, जिसमें 20,000 से अधिक संतों ने एक साथ भोजन किया। इस विशाल लंगर के आयोजन ने यह संदेश दिया कि सच्ची भक्ति केवल शब्दों में नहीं होती, बल्कि इसका प्रदर्शन अपने कार्यों से भी होता है। विशेष रूप से दिव्यांगों और वयोवृद्धों के लिए लंगर में विशेष व्यवस्था की गई थी, ताकि सभी को इस दिव्य आयोजन का हिस्सा बनने का अवसर मिले।
पर्यावरण के प्रति जागरूकता को भी ध्यान में रखते हुए भोजन स्टील की थालियों में परोसा गया, जो न केवल पर्यावरण के लिए सही था, बल्कि इसने समागम में जिम्मेदार नागरिकता का भी उदाहरण प्रस्तुत किया। इस लंगर सेवा के माध्यम से संतों ने यह सिद्ध किया कि सच्ची भक्ति और एकता का प्रतीक केवल सेवा में है। यह लंगर एक मजबूत संदेश था कि सारा संसार एक परिवार है और हम सभी को एक दूसरे के साथ मिलकर समाज की भलाई के लिए काम करना चाहिए।
सतगुरु माता सुदीक्षा जी का अमृत प्रवचन
समागम के अंतिम दिन सतगुरु माता सुदीक्षा जी ने अपने अमृत प्रवचनों में परमात्मा के असीम स्वभाव पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा, “जब हम ब्रह्मज्ञान के माध्यम से परमात्मा से जुड़ते हैं, तो हमारे जीवन में असीम शांति, प्रेम, और सुख का अनुभव होता है।” उनका यह संदेश था कि भक्ति का मार्ग केवल आत्मा के भीतर की शांति को महसूस करने का नहीं है, बल्कि यह समाज में प्रेम और भाईचारे का संचार करने का भी है।
सतगुरु माता सुदीक्षा जी ने अपने प्रवचन में भेदभाव और संकीर्णताओं को नकारते हुए समाज में समदृष्टि और समानता की आवश्यकता पर जोर दिया। उनका कहना था, “ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के बाद जीवन में कोई भी भेदभाव नहीं रहता और हम सभी मानवता की सेवा में अपने कर्तव्यों को निभाते हैं।” उन्होंने यह भी बताया कि सच्ची भक्ति वह है जो न केवल आत्मा को शांति देती है, बल्कि समाज में प्रेम, सौहार्द, और समृद्धि का प्रसार करती है।
समाज में समदृष्टि और समानता का संदेश Nirankari Sant Samagam
समागम के दौरान सतगुरु माता सुदीक्षा जी ने समाज में समदृष्टि और समानता का संदेश भी दिया। उन्होंने कहा कि हम सभी को भेदभाव से परे होकर एक दूसरे के साथ प्रेम और सम्मान से पेश आना चाहिए। जब हम परमात्मा से जुड़ते हैं, तो हमारा दृष्टिकोण पूरी दुनिया के प्रति बदल जाता है। इस समय हमें अपनी छोटी-छोटी समस्याओं से ऊपर उठकर बड़े दृष्टिकोण से समाज की भलाई के लिए काम करना चाहिए।
उनके प्रवचन ने हमें यह सिखाया कि मानवता की सेवा सबसे बड़ा धर्म है। किसी भी प्रकार की जातिवाद, धर्मवाद, और संप्रदायवाद से ऊपर उठकर हमें एक समान दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। इस प्रकार, निरंकारी संत समागम ने हमें यह समझने का अवसर दिया कि जीवन का उद्देश्य केवल आत्मा की मुक्ति नहीं है, बल्कि यह समाज में प्यार और एकता का संदेश फैलाना भी है।
समागम का सफल समापन और आभार व्यक्त
समागम के समापन पर समागम समिति के समन्वयक, जोगिंदर सुखीजा जी ने सतगुरु माता सुदीक्षा जी और निरंकारी राजपिता जी का आभार व्यक्त किया और सभी सरकारी विभागों का धन्यवाद किया जिन्होंने इस पवित्र आयोजन में योगदान दिया। समागम के समापन पर वातावरण भक्तिभाव से भरपूर था। श्रद्धालु इस दिव्य अवसर की शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारने के लिए अपने-अपने गंतव्यों की ओर प्रस्थान कर गए।
समागम का सफल समापन इस बात का प्रतीक था कि जब लोग एकजुट होकर एक उद्देश्य के लिए काम करते हैं, तो वे न केवल अपने जीवन में बदलाव ला सकते हैं, बल्कि समाज में भी सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। यह आयोजन हमें यह सिखाता है कि आत्मज्ञान और भक्ति की शक्ति से हम जीवन में हर प्रकार की कठिनाई और तनाव को पार कर सकते हैं।
Nirankari Sant Samagam
77वें निरंकारी संत समागम का आयोजन न केवल भक्ति का उत्सव था, बल्कि यह एक ऐसा मंच था, जहां पर प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन की दिशा बदलने और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने का अवसर मिला। सतगुरु माता सुदीक्षा जी के अमृत प्रवचन, बहुभाषी कवि दरबार, और लंगर सेवा ने इस समागम को एक अविस्मरणीय अनुभव बना दिया। इस आयोजन से एक स्पष्ट संदेश मिला कि भक्ति, प्रेम, और सेवा के माध्यम से हम जीवन में सकारात्मक विस्तार और असीम शांति प्राप्त कर सकते हैं।
*विस्तार: असीम की ओर*
हमारा जीवन एक सीमित दायरे में बंधा होता है। समय, स्थान, ज्ञान, और शक्ति सभी कुछ सीमित होते हैं। लेकिन क्या आपने कभी विचार किया है कि इस सीमितता से परे भी कुछ है? क्या कोई ऐसी अवस्था है जहां कोई सीमा न हो? सतगुरु या ब्रह्मज्ञान हमें इसी असीमता की ओर लेकर जाता है, जो अनंत और असीमित है। आइए, इस असीमता को गहराई से समझें।
*असीमता का अर्थ*
असीमता का शाब्दिक अर्थ है, “कोई सीमा न होना।” यह एक ऐसी अवस्था है जहां सभी बाधाएं समाप्त हो जाती हैं, जहां सब कुछ संभव हो जाता है। यह अनुभव शब्दों के परे है। इसे केवल सतगुरु की कृपा से जाना व समझा जा सकता है।
अवतार वाणी फ़रमान देती है कि –
आओ प्रभु के दर्शन करलो कह दो सब इंसानो को
सतगुरु क्षण में मानव कर दे मेरे सम हैवानों को।
(अर्थात, प्रभु का दर्शन असीम का अनुभव करना है।)
चूंकि परमात्मा ही अनन्त असीम और सर्वव्यापी है।
वेदों, उपनिषदों और शास्त्रों में असीमता को परमात्मा से जोड़कर देखा ही गया है।
ऋग्वेद में कहा गया है:
“एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति, नेह नानास्ति किंचन।”
(अर्थात, एक ही ब्रह्म है, दूसरा कोई नहीं है, यहाँ कोई भिन्नता नहीं है।)
यहां ‘असीम’ का तात्पर्य उस ब्रह्म से है, जो सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी है। इस असीम ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए मानव को अपनी सीमितताओं से ऊपर उठना होता है।
इस असीमता की कोई सीमा नहीं है, यह जीवन के हर पहलू में विद्यमान है। ईशोपनिषद में कहा गया है:
“पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।”
(यह जो ब्रह्म है, वह पूर्ण है, और यह जगत जो उससे उत्पन्न हुआ है, वह भी पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण को निकालने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है।)
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि ब्रह्म और जगत दोनों असीम हैं। इस असीमता का अनुभव हमारी चेतना के विस्तार से जुड़ा हुआ है। जब हम इस असीमता का अनुभव आत्मा के स्तर पर करते हैं, तो भौतिक सीमाएं हमारे लिए कोई मायने नहीं रखतीं।
*आध्यात्मिकता और असीमता*
आध्यात्मिकता हमें इस असीम ब्रह्मांड और उसकी अनंत, सर्वव्यापी को समझने की दिशा में मार्गदर्शन करती है। संत कबीर के दोहे इस बात को उजागर करते हैं कि बाहरी धार्मिक अनुष्ठान सीमित होते हैं, लेकिन आंतरिक परिवर्तन हमें असीमता का अनुभव कराते हैं।
“माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।”
यह दोहा दर्शाता है कि बाहरी दिखावे से कुछ नहीं होता, असली बदलाव तब आता है जब आत्मा का विस्तार होता है। जब हमारी चेतना सीमाओं से परे जाती है, तब हम ईश्वर की असीमता का अनुभव करते हैं। चेतना से ऊपर उठकर अनंत चेतना में प्रवेश करते हैं।
विस्तार – असीम की ओर…… – यह यात्रा केवल बाहरी नहीं है, बल्कि यह एक आंतरिक खोज है। यह खोज आत्मा को पहचानने और उसकी असीमता को अनुभव करने की है। वेद, शास्त्र, दोहे और संतों की वाणी सभी हमें इस यात्रा की दिशा में प्रेरित करती हैं। गुणात्मक दृष्टिकोण से, यह यात्रा अनुभवों और आत्मबोध से जुड़ी है। जब हम अपने भीतर के सत्य को समझते हैं, तो हम अपने अस्तित्व की सीमाओं से मुक्त होकर असीमता की ओर बढ़ते हैं।
*विस्तार: असीम की ओर*
हमारा जीवन एक सीमित दायरे में बंधा होता है। समय, स्थान, ज्ञान, और शक्ति सभी कुछ सीमित होते हैं। लेकिन क्या आपने कभी विचार किया है कि इस सीमितता से परे भी कुछ है? क्या कोई ऐसी अवस्था है जहां कोई सीमा न हो? सतगुरु या ब्रह्मज्ञान हमें इसी असीमता की ओर लेकर जाता है, जो अनंत और असीमित है। आइए, इस असीमता को गहराई से समझें।
*असीमता का अर्थ*
असीमता का शाब्दिक अर्थ है, “कोई सीमा न होना।” यह एक ऐसी अवस्था है जहां सभी बाधाएं समाप्त हो जाती हैं, जहां सब कुछ संभव हो जाता है। यह अनुभव शब्दों के परे है। इसे केवल सतगुरु की कृपा से जाना व समझा जा सकता है।
अवतार वाणी फ़रमान देती है कि –
आओ प्रभु के दर्शन करलो कह दो सब इंसानो को
सतगुरु क्षण में मानव कर दे मेरे सम हैवानों को।
(अर्थात, प्रभु का दर्शन असीम का अनुभव करना है।)
चूंकि परमात्मा ही अनन्त असीम और सर्वव्यापी है।
वेदों, उपनिषदों और शास्त्रों में असीमता को परमात्मा से जोड़कर देखा ही गया है।
ऋग्वेद में कहा गया है:
“एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति, नेह नानास्ति किंचन।”
(अर्थात, एक ही ब्रह्म है, दूसरा कोई नहीं है, यहाँ कोई भिन्नता नहीं है।)
यहां ‘असीम’ का तात्पर्य उस ब्रह्म से है, जो सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी है। इस असीम ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए मानव को अपनी सीमितताओं से ऊपर उठना होता है।
इस असीमता की कोई सीमा नहीं है, यह जीवन के हर पहलू में विद्यमान है। ईशोपनिषद में कहा गया है:
“पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।”
(यह जो ब्रह्म है, वह पूर्ण है, और यह जगत जो उससे उत्पन्न हुआ है, वह भी पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण को निकालने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है।)
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि ब्रह्म और जगत दोनों असीम हैं। इस असीमता का अनुभव हमारी चेतना के विस्तार से जुड़ा हुआ है। जब हम इस असीमता का अनुभव आत्मा के स्तर पर करते हैं, तो भौतिक सीमाएं हमारे लिए कोई मायने नहीं रखतीं।
*आध्यात्मिकता और असीमता*
आध्यात्मिकता हमें इस असीम ब्रह्मांड और उसकी अनंत, सर्वव्यापी को समझने की दिशा में मार्गदर्शन करती है। संत कबीर के दोहे इस बात को उजागर करते हैं कि बाहरी धार्मिक अनुष्ठान सीमित होते हैं, लेकिन आंतरिक परिवर्तन हमें असीमता का अनुभव कराते हैं।
“माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।”
यह दोहा दर्शाता है कि बाहरी दिखावे से कुछ नहीं होता, असली बदलाव तब आता है जब आत्मा का विस्तार होता है। जब हमारी चेतना सीमाओं से परे जाती है, तब हम ईश्वर की असीमता का अनुभव करते हैं। चेतना से ऊपर उठकर अनंत चेतना में प्रवेश करते हैं।
विस्तार – असीम की ओर…… – यह यात्रा केवल बाहरी नहीं है, बल्कि यह एक आंतरिक खोज है। यह खोज आत्मा को पहचानने और उसकी असीमता को अनुभव करने की है। वेद, शास्त्र, दोहे और संतों की वाणी सभी हमें इस यात्रा की दिशा में प्रेरित करती हैं। गुणात्मक दृष्टिकोण से, यह यात्रा अनुभवों और आत्मबोध से जुड़ी है। जब हम अपने भीतर के सत्य को समझते हैं, तो हम अपने अस्तित्व की सीमाओं से मुक्त होकर असीमता की ओर बढ़ते हैं।
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